द्वितीय ज्योतिर्लिंग की कथा मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग।
दक्षिड़ भारत के आंध्र प्रदेश में मल्लिकार्जुन मंदिर भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है , यह ज्योतिर्लिंग कृष्णा नदी किनारे पर श्रीशैल पर्वत पर विराजमान है जिसे दक्षिण का कैलाश पर्वत भी कहते है इस पवित्र स्थान की महिमा का वर्णन महाभारत , शिव पुराण और पदम् पुराण जैस आदि धर्म ग्रंथों में भी मिलता है , महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। कुछ ग्रन्थों में तो यहाँ तक लिखा गया है कि श्रीशैल के पर्वत के शिखर के दर्शन मात्र करने से जन्मो के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं, उसे अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है और जन्म और मरण के चक्कर से मुक्ती मिल जाती है। इस का वर्णन शिवपुराण के कोटिरुद्र संहिता के पन्द्रहवे अध्याय में उपलब्ध होता है।यह सभी ज्योतिर्लिंग में सबसे ज्यादा अनोखा इसलिए हैं क्योंकि यहां भगवान शिव और माता पार्वती दोनों ही मौजूद है।
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द्वितीय ज्योतिर्लिंग की कथा मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग |
मल्लिकार्जुन का अर्थ?
तदिद्नं हि समारभ्य मल्लिकार्जुन सम्भवम्।
लिंगं चैव शिवस्यैकं प्रसिद्धं भुवनत्रये।।
तल्लिंग यः समीक्षते स सवैः किल्बिषैरपि।
मुच्यते नात्र सन्देहः सर्वान्कामानवाप्नुयात्।।
दुःखं च दूरतो याति सुखमात्यंतिकं लभेत।
जननीगर्भसम्भूत कष्टं नाप्नोति वै पुनः।।
धनधान्यसमृद्धिश्च प्रतिष्ठाऽऽरोग्यमेव च।
अभीष्टफलसिद्धिश्च जायते नात्र संशयः।।
पौराणिक कथा:-
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कहानी हिंदी में :-
भगवान शिव तथा पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय और गणेश दोनों भाई विवाह के लिए आपस में कलह करने लगे। कार्तिकेय का कहना था कि वे बड़े भाई हैं, इसलिए उनका विवाह श्री गणेश पहले होना चाहिए , किन्तु श्री गणेश अपना विवाह स्वामी कार्तिकेय से पहले करना चाहते थे। इस समस्या के समाधान के के लिए दोनों अपने माता-पिता पार्वती और शंकर के पास पहुँचे। उनके माता-पिता ने कहा कि तुम दोनों में जो कोई इस पृथ्वी की सात बार परिक्रमा करके पहले यहाँ आ जाएगा, उसी का विवाह सबसे पहले होगा। शर्त सुनते ही कार्तिकेय जी खुश होकर तुरंत अपने वाहन मोर पर सवार हो कर पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए निकल पड़े। इधर स्थूलकाय श्री गणेश जी चिंतित होने लगे क्योकि उनका वाहन तो चूहा, भला इतनी शीघ्रता से वे परिक्रमा कैसे कर सकते थे। गणेश जी के सामने बड़ी समस्या उपस्थित थी। श्रीगणेश जी शरीर से ज़रूर स्थूल हैं, किन्तु वे बुद्धि के सागर हैं। उन्होंने कुछ सोच-विचार किया और अपनी माता पार्वती तथा पिता देवाधिदेव महादेव शिव को एक ऊँचे स्थान पर आसन ग्रहण करने का आग्रह किया। उन दोनों के आसन पर बैठ जाने के बाद श्रीगणेश ने उनकी सात परिक्रमा की, फिर विधिवत् पूजन किया , यह सब देखकर माता पार्वती ने श्री गणेश से पुछा की पुत्र ये परिक्रमा क्यों इस प्रश्न का उत्तर देते हुवे श्री गणेश ने कहाँ की जो पुण्य सारी पृथ्वी की परिक्रमा करने प्राप्त होता है वही पुण्य माता के परिक्रमा से प्राप्त होता है , शास्त्रों में लिखा है कि पिता का पूजन करने से सारे देवताओं के पूजन का पुण्य प्राप्त होता है अतः आप दोनों की परिक्रमा करना पृथ्वी की परिक्रमा करने के समान ही है। गणेश जी की चतुराई से प्रसन्न होकर भगवान शिव तथा माता पार्वती ने गणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्री रिद्धि सिद्धि से करा दिया।
पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः।
तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्।
एक अन्य कथा के अनुसार कौंच पर्वत के समीप में चन्द्रगुप्त राजा की राजधानी थी। उनकी बेटी किसी मुसीबत में फस गई थी। उस संकट से बचने के लिए वह अपने पिता के राजमहल से भागकर पर्वतराज की शरण में पहुँच गई। चन्द्रगुप्त राजा की कन्या ग्वालों के साथ कन्दमूल खाती और दूध पीती थी। इस प्रकार उसका जीवन-निर्वाह उस पर्वत पर होने लगा। उस कन्या के पास एक श्यामा (काली) गाय थी , जिसकी सेवा वह स्वयं करती थी। उस गाय के साथ विचित्र घटना घटित होने लगी। कोई व्यक्ति छिपकर प्रतिदिन उस श्यामा का दूध निकाल लेता था। एक दिन उस कन्या ने किसी चोर को श्यामा का दूध दुहते हुए देख लिया, तब वह क्रोध में आगबबूला हो उसको मारने के लिए दौड़ पड़ी। जब वह गौ के समीप पहुँची, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि वहाँ उसे एक शिवलिंग के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया। आगे चलकर उस राजकुमारी ने उस शिवलिंग के ऊपर एक सुन्दर सा मन्दिर बनवा दिया। वही प्राचीन शिवलिंग आज ‘मल्लिकार्जुन’ ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर का भलीभाँति सर्वेक्षण करने के बाद पुरातत्त्ववेत्ताओं ने ऐसा अनुमान किया है कि इसका निर्माणकार्य लगभग दो हज़ार वर्ष प्राचीन है। इस ऐतिहासिक मन्दिर के दर्शन तथा भोले शिव की कृपा पाने के लिए बड़े-बड़े राजा-महाराजा समय-समय पर आते रहे हैं।
विजयनगर के महाराजा कृष्ण देव राय के द्वारा निर्माण।
आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व श्री विजयनगर के महाराजा कृष्ण देव राय यहाँ पहुँचे थे। उन्होंने यहाँ एक सुंदर तथा भव्य मण्डप का भी निर्माण कराया था, जिसका शिखर सोने का बना हुआ था। उनके डेढ़ सौ वर्षों बाद छत्रपति महाराज शिवाजी भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु क्रौंच पर्वत पर पहुँचे थे। उन्होंने मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर यात्रियों के आराम लिए एक उत्तम धर्मशाला बनवाया था। इस पर्वत पर अनेक शिवलिंग मिलते हैं। यहाँ पर महाशिवरात्रि के दिन मेला लगता है। मन्दिर के पास जगदम्बा का भी एक स्थान है। यहाँ माँ पार्वती को ‘भ्रमराम्बा’ कहा जाता है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की पहाड़ी से पाँच किलोमीटर नीचे पातालगंगा के नाम से प्रसिद्ध कृष्णा नदी हैं, जिसमें स्नान करने का महत्त्व शास्त्रों में वर्णित है।
अन्य तीर्थ एवं दर्शनीय स्थल :-
मुख्य मंदिर के बाहर भाग में पीपल पाकर के कई मिले हुवे पेड़ है। उसके पास ही चबूतरा है। दक्षिण भारत के अन्य मंदिरों की तराह यहाँ भी मूर्ति तक जाने का टिकट कार्यालय से लेना पड़ता है। पूजा का शुल्क टिकट भी अलग होता है। यहाँ ज्योतिर्लिंग मूर्ति का स्पर्श प्राप्त होता है। मल्लिकार्जुन मंदिर के ठीक पीछे ही माता पार्वती का मंदिर है। इन्हें यह पे मल्लिका देवी के नाम से जाना जाता हैं। मंदिर के परिसर में ही कैलाश के द्वारपाल तथा शिव के वाहन नन्दी की विशाल मूर्ति है।
पातालगंगा-
मंदिर के पूर्वद्वार से लगभग दो मील पर पातालगंगा है। इसका रास्ता मुश्किल है। एक मील उतार और फिर 852 सीढ़ियाँ हैं। पर्वत के ठीक नीचे ही कृष्णा नदी है। यहा पे यात्री स्नान करके यहाँ जल लेकर चढ़ाने के लिए जाते हैं। वहाँ कृष्णा नदी में दो नाले मिलते हैं। वह स्थान त्रिवेणी कहा जाता है। उसके समीप पूर्व की ओर एक गुफा में भैरवादि मूर्तियाँ हैं। यह गुफा कई मील गहरी कही जाती है। अब यात्री मोटर बस से 4 मील आकर कृष्णा में स्नान करते हैं।
भ्रमराम्बादेवी:-
मल्लिकार्जुन मंदिर से पश्चिम में दो मील पर यह मंदिर है। यह 51 शक्तिपीठों में है। यहाँ सती की ग्रीवा गिरी थी।
शिखरेश्वर:-
मल्लिकार्जुन से छ: मील की दूरी पर शिखरेश्वर तथा हाटकेश्वर मंदिर हैं। कुछ श्रद्धालु शिवरात्रि से पहले वहां तक जाते हैं। शिखरेश्वर से मल्लिकार्जुन मंदिर के कलश दर्शन का ही महत्व माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि श्रीशैल के शिखर का दर्शन करने मात्रा से जन्म - मरण से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
विल्वन:-
शिखरेश्वर से 6 मील पर एकम्मा देवी का मंदिर घोर वन में है। यहाँ मार्ग दर्शक एवं सुरक्षा के बिना यात्रा संभव नहीं। हिंसक पशु इधर बन में बहुत हैं।
श्रीशैल का यह पूरा क्षेत्र घोर वन में है। अतः मोटर मार्ग ही है। पैदल यहाँ की यात्रा केवल शिवरात्रि पर होती है
यहाँ पर महाशिवरात्रि के दिनभव्य मेलाका आयोजन होता है। मन्दिर के पास जगदम्बा माता का भी एक स्थान है। यहाँ माँ पार्वती को ‘भ्रमराम्बा’ कहा जाता है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की पहाड़ी से पाँच किलोमीटर नीचे पातालगंगा के नाम से प्रसिद्ध कृष्णा नदी हैं, जिसमें स्नान करने का महत्त्व शास्त्रों में वर्णित है।
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